अर्धांगी हूँ मैं आर्य पुत्र …….
उर्मिला
अर्धांगी हूँ मैं आर्य पुत्र !
मैं भार्या,वनिता,नवल वधू,
क्यों स्नेह मेरा ठुकराते हो!
अपना कर्तव्य निभाने को,
हे आर्य!बने तुम वनवासी।
अपना दायित्व निभाने को,
बनना चाहूँ प्रभू की दासी!
संग ले चलिये हे नाथ मुझे
मैं पत्नी धर्म निभाउंगी
तुम करना भ्राता की सेवा
मैं कभी न आड़े आऊँगी
वल्कल वस्त्रों को धारण कर
मैं भी योगिन बन जाऊँगी
तुम भ्राता के संग में चलना
मैं पीछे – पीछे आऊँगी
कर त्याग सभी राजसी ठाट
जब स्वामी बन को जायेंगे
तुम बिन राजसी ठाट- बाट
क्या हमें रास फिर आयेंगे
बोले लक्ष्मण,”सुन प्राणप्रिये!
तुमको सारे अधिकार दिए
तुम निधि हो मेरे जीवन की
अभिलाषा हो तन की मन की
माना वन जाना दुष्कर है
पर प्रभु बिन जीवन क्यों कर है?
विधना की यह सब माया है
जिसने जगती भरमाया है
यह बरस शीघ्र ही बीतेंगे
वन में भी हम ही जीतेंगे
आएंगे हम निज धाम प्रिये
पूरे होंगे सब काम प्रिये
तुम तनिक नहीं हिम्मत हारो
न वृथा व्यथा कर मन मारो
निज सास श्वसुर सम्मान करो
उर्मिले तुम अपना ध्यान धरो
मैं प्रभू राम ! का अनुचर हूँ
सुख-दुःख में भी मैं सहचर हूँ
मैं दास हूँ अग्रज चरणों का
साधन हूँ निज उपकरणों का
जो बना स्वयं वनवासी हो
फिर साथ में कैसे दासी हो
मानों कलत्र तुम बात मेरी
उर्मिले! संभालो मात मेरी
उर अंतस में तुम रहो सदा
हे हृदय स्वामिनी तुम्हें विदा
रखना बस मुझको याद प्रिये
लौटूँ जब वर्षों बाद प्रिये
अपराधी अपना मान मुझे
दो क्षमा दया का दान मुझे
आगे बढ़कर अपना लेना
हँस कर तुम गले लगा लेना
दोनों मिलकर फिर रोयेंगे
अश्रुकण हमको धोएंगे
शीतल होगा उर ताप तभी
मिट जाएंगे संताप सभी
~ बबिता पाण्डेय
(मौलिक एवं स्वरचित)