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बेटा बनकर सब कर्ज उतारे, भाई- सा पहरेदार बना ……..
बेटा बनकर सब कर्ज उतारे, भाई- सा पहरेदार बना।
बनकर बरगद छाया की सब पर, फिर भी वह बेकार बना।।
सागर जितने आँसू पीये,
पुरुष रूप पाकर जिसने।
पत्थर समझा बस चोटें दीं,
अनगिन घाव दिए सबने।।
सबको देकर जय की सौगातें, फिर खुद ही वह क्यों हार बना।
बनकर बरगद छाया की सब पर, फिर भी वह बेकार बना।।
पति बनकर सब वारा जिसने,
सुख घर लाने की खातिर।
बिन गलती के गलत हुआ जो,
प्रेम बचाने की खातिर।।
माता- पत्नी के बीच फँसा वह, बलि का बकरा हर बार बना।
बनकर बरगद छाया की सब पर, फिर भी वह बेकार बना।।
वृद्ध हुआ कोने में बैठा,
घर में ही बेघर पाता।
सभी समझते भावहीन क्यों,
सदा उपेक्षित हो जाता।।
आधारहीन क्यों हुआ वही अब, जो था सबका आधार बना।
बनकर बरगद छाया की सब पर, फिर भी वह बेकार बना।।
~ कविता प्रकाश, हरियाणा