अभिभावकों का प्रेशर, स्कूल का प्रेशर और सबसे बढ़ कर कोचिंग का प्रेशर, बात न कोटा की है !
बात न कोटा की है, न किसी और शहर की, बात है प्रेशर की
अभिभावकों का प्रेशर, स्कूल का प्रेशर और सबसे बढ़ कर कोचिंग का प्रेशर।
कुछ वक़्त से एक नया चलन देखने मिला है- कोचिंग में संडे टेस्ट का!
हर बच्चा उस टेस्ट में नहीं बैठ सकता, पहले छटनी होती है, फिर कुछ ही बच्चे उस टेस्ट में बैठ सकते हैं।
बच्चे सिर्फ उस टेस्ट तक पहुंचने के लिए पढ़ते हैं, जो पहुंच गया उसकी शान बढ़ती है, जो न पहुंच पाया वो खुद पे प्रश्नचिन्ह लगा कर बैठ जाता है। उसको वहीं से सेल्फ डाउट होने लगते हैं।
आजकल डमी स्कूल का भी कल्चर आ गया है।
सब भेड़ चाल है।
न कोई बचपन रह गया, न त्योहार की खुशी, न कोई यादें ही बन रही हैं बच्चों की।
जहाँ नाइंथ में आये, सबसे पहला काम कोचिंग में डालने का होता है।
सवाल ये है कि बिना सही से समय दिए बच्चा कैसे निर्णय ले कि उसको बायोलॉजी पढ़नी है कि मैथ्स!
उसको ग्यारहवीं में साइंस लेनी है, कि कॉमर्स, कि हयूमैनिटीज़…
अगर नाइंथ से ही बच्चा इंजीनियरिंग की या मेडिकल की तैयारी में लगा दिया जाता है तो वो अक्सर अपने पेरेंट्स से संकोच के कारण कुछ बोल ही नहीं पाता।
डर लगता है और दुख भी होता है।
हाँ, कुछ बच्चे होते हैं जिनमें खुद ये दृढ़ता होती है कि उन्हें आगे क्या करना है, पर अमूमन, हर वो बच्चा जो सौ किलो का बस्ता लादे पहले स्कूल जाता है, फिर कोचिंग, या जो डमी स्कूल में पढ़ता है, या कोटा, या कानपुर, या इलाहाबाद या किसी और शहर पहुंचता है, तैयारी करने, उसे नहीं पता होता कि अगर उसका सिलेक्शन नहीं हुआ तो वो क्या करेगा!
यहाँ से, अभिभावक का दायित्व बहुत बढ़ जाना चाहिए।
बात करिये अपने बच्चे से, उसके साथ वक़्त बिताइए, अगर लगे कि कोई बात परेशान कर रही है उसको, या वो बेमन से पढ़ रहा है तो उसकी बात सुनिए, राह दिखाइए, किसी कॅरियर कॉउंसेलर से मिलिए। पर बच्चे पे प्रेशर मत डालिये।
कोई अनहोनी होते ही; हम सोशल मीडिया पे पोस्ट कर के अपने दायित्व से बरी हो लेते हैं, पर जिसके घर की रौनक चली जाती है, वो जीवन भर अपने आपको संभाल नहीं पाते।
गलती करने दीजिए, अपने निर्णय लेने दीजिए, बच्चों को बचपन जीने दीजिए, उनके पीछे उनकी ढाल बन कर खड़े रहिए।
उनसे बात करते रहिए।
एग्जाम में फेल होना मंज़ूर है, दोबारा दे सकते हैं एग्जाम! पर जीवन के एग्जाम में उन्हें हारना भी सीखने दीजिए। नहीं तो वो जीवन से ही हार जाते हैं…फिर कुछ नहीं बचता!!
उनको सहेजिये, बच्चे फूल की तरह होते हैं। ध्यान दीजिए कि वो मुरझाने न पाएं।
~पल्लवी गर्ग
कानपुर
बोझिल मन से सोचते हुए, लिखते हुए