डर अब नहीं है मुझको बेख़ौफ़ आँधियों से …….
डर अब नहीं है मुझको बेख़ौफ़ आँधियों से
बचना बड़ा है मुश्किल घर के शिकारियों से।।
न नोच लें ये ज़ालिम फिर से किसी कली को
सैय्याद फिर रहे हैं कह दो ये मालियों से।।
कच्ची कली हैं इनको मसलो न यूँ हवस में
हो जाए न यूँ ख़ाली चमन भी तितलियों से।।
खुद फाँकें कितने डाले भूखा न उनको पाला
पलती नहीं है माँ अब उन चार भाइयों से।।
आ कर के दे दे काँधा इन बूढ़ी हड्डियों को
दिल भर चूका है बेटा इन तेरी चिठ्ठियों से।।
जपती हैं वृंदावन में जो जा के शाम राधे
कटता है कैसे जीवन पूछो बेचारियों से।।
मय्यित को मेरी उनकी गलियों से ले न जाना
कहीं फिर से खुल न जाए ये आँख हिचकियों से।।
ख़ारों ने हमको पाला रिश्ता है अपना ग़म से
कह दो नहीं है अब डर बेजान तल्ख़ियों से।।
महफ़िल में जल रहा है परवाना कोई”सन्दल”
शब भी पिघल रही है शम्मा की सिसकियों से।।
~ प्रिया सिन्हा”सन्दल”
नोएडा ( उत्तर प्रदेश )