STORY / ARTICLE

सूरज के मुख पर कालिख है, बहक गयी है रानाई, दौर हमारा झेल रहा है ……….

सूरज के मुख पर कालिख है
बहक गयी है रानाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई

एक तरफ़ तो स्वाभिमान है
एक तरफ़ समझौते हैं
दिशाहीन युग के हाथों की
कठपुतली बन रोते हैं
इधर कुँआ है अगर चलें तो
उधर खुली गहरी खाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई

बौने हैं आदर्श भी जिनके
वो हमको समझाते हैं
जो ख़ुद हैं गुमराह यहाँ वो
सबको राह दिखाते हैं
अंधे बतलाते हैं हमको
क्या होती है बीनाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई

उनकी ख़ातिर यश-गाथाऐं
हम दामन के दाग़ सही
उनको सुख की सेज मुबारक
हमको ग़म की आग सही
झूठों को सारी अय्याशी
सच्चों की शामत आई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई

पनप चुका है आज छलावा
आपस के संबंधों में
मर्यादा का भार वहें वो
बचा नहीं दम कंधों में
हल्के अब इंसान हो गये
भारी हो रही परछाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई

शब्द महज़ आक्रोश ओढ़कर
काग़ज़ पर सो जाते हैं
समाधान तक आते-आते
मुद्दे ही खो जाते हैं
भटक चुके हैं आज नियंता
भस्म हो गयी दानाई
दौर हमारा झेल रहा है
कैसी कैसी रुसवाई।

~ डॉ.पूनम यादव
नई दिल्ली

Related Articles

Back to top button