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बाहर की दुनियादारी से
एक क़दम आगे बढ़ लो न..
बाहर की दुनियादारी से
एक क़दम आगे बढ़ लो न..
नीर छीर के बनो विवेकी
अन्तस् का क्रन्दन पढ़ लो न..!!
आशाओं के ज्वार ढले हैं,
जैसे तैसे रात कटी पर..
दिन प्रश्नों के भार तले हैं।
दुःख से अब भी जी घबराता
यद्यपि दुःख के बीच पले हैं,
पनघट पर आकर घट लौटे
बार अनेकों हाथ मले हैं,
सांसो के अनुबंध बचा लें..
नए नियम कोई गढ़ लो न..
बाहर की दुनियादारी से
एक क़दम आगे बढ़ लो न!
अन्तस् का क्रन्दन पढ़ लो न!!
~ डॉ मानसी द्विवेदी