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मानव मन पालता नित नये अरमान, खोलता नित नई सपनों की दुकान
मानव मन पालता नित नये अरमान,
खोलता नित नई सपनों की दुकान,
आहा! रंग-बिरंगे सपने बिकने को तैयार,
सजने को तैयार,
मिलने को तैयार,
छिनने को तैयार,
धूमिल होने को तैयार,
हरे-गुलाबी, सतरंगी,
लाल सुर्ख़-सुरमई, बैंगनी,
वाह! रे मन,
सागर सम गहन,
विस्तृत व्योम सदर्श,
घनघोर विपिन सम अदर्श,
आख़िर ठहरती कहां है?
किसी एक सपने पर?
आँखें ढूंढती हैं नित नया,
ढूंढती है अपनी पसंद का सामान, अनोखे अनजाने अरमान,
ठूँठ में भी जीवन की राह,
मुट्ठी में भर लूँ अथाह,
जाने कितने संधान,
और कितने व्यवधान,
मानव मन पालता नित नए अरमान,
खोलता नित नई सपनों की दुकान।
~ रश्मि ममगाईं