अंतरतम में मृदु स्वप्न पलने लगे, प्रस्तावना से तेरे दृग पटल सजने लगे।
अंतरतम में मृदु स्वप्न पलने लगे,
प्रस्तावना से तेरे दृग पटल सजने लगे।
बंद पड़े हृदय द्वार पर मुखर भाव से आना,
मुझे सब तेरी ही अब कहने लगे,
अंतरतम में मृदु स्वप्न…
एकाकी मन के अंबर में लेकर बूँद प्रीत की,
हर्षाते मेरे अधरों को देकर रेखा स्मित सी,
सूने सूने बिन दादुर के एकाकीनी रात में,
दृग कोरों पर स्थित कज्जल की बरसात में,
विनत मुख पर प्रीत की झीनी चादर ढकने लगे,
अंतरतम में मृदु स्वप्न…
जीत जाती हूँ जग से तेरे शब्दों से हार जाती,
पढ़ती हूँ प्रतिपल तुझको जाने क्यों समझ न पाती?
कभी अभेद्य कभी निश्छल से बन जाते हो,
भीनी भीनी सौरभ बनकर उर स्पंद में समाते हो।
संदली हुई मेरी काया तुम ही तुम अपने लगे,
अंतरतम में मृदु स्वप्न…
तेरी विद्वता की परिधि में, मैं हूँ इक लघु कण,
तुम सागर से धीर, सरिता सा चंचल मेरा मन।
वर्जनाओं के क्षितिज को तोड़ भी दूँ तो,
विपरित दिशाओं को मोड़ भी दूँ तो,
पुनः विरह भय हृदय कम्पित करने लगे,
जाने क्यों मृदु स्वप्न पलने लगे?
~ डॉ. रीमा सिन्हा
लखनऊ (स्वरचित )