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आपकी वो इक छुअन जैसे शिला सी हो गई है, क्यों प्रतीक्षा अब हमारी उर्मिला सी हो गई है

पकी वो इक छुअन जैसे शिला सी हो गई है
क्यों प्रतीक्षा अब हमारी उर्मिला सी हो गई है
लौटकर इक दिन तो भटके
वो पथिक आ जायेंगे
पूर्ण सब अधिकार से फिर
द्वार को खटकायेंगे
बस इसी आशा को हमनें
इक हिमालय कर रखा है
आपकी सूरत विराजी
मन शिवालय कर रखा है
प्रीत पीड़ाओं की जैसे श्रृंखला सी हो गई है
क्यों प्रतीक्षा अब हमारी सी उर्मिला हो गई है
नैन भी रातों से रूठे
खार जल से भीजते हैं
सूखकर के पुष्प सारे
केश दल से खीजते हैं
रंग मेंहदी का चटक ये
अब सुहाता ही नहीं है
कोई कागा आपका
संदेश लाता ही नहीं है
स्वांस रूकती सी चलन का सिलसिला सा हो गई है
क्यों प्रतीक्षा अब हमारी उर्मिला सी हो गई है

~ प्राची मिश्रा

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