आज मुद्दतों बाद मैं, अपने बचपन के सखा, अपने गांव से मिलने गई …….

मेरा गांव
आज मुद्दतों बाद मैं
अपने बचपन के सखा
अपने गांव से मिलने गई,
गाड़ी से उतरते ही
मैं और मेरा जिस्म
अलग हो गए
मैं उस शांत, सुनसान सड़क को लांघ कर ऊबड़ खाबड़
पथरीली राह की ओर चल पड़ी,
और मेरा जिस्म भरे पूरे बाज़ार से गुज़रता हुआ
पक्की और चारों ओर से
शानदार घरों से घिरी
गली की राह चल पड़ा।
वो नल,जिसको खोलते ही पानी के
बेकाबू फव्वारे छूटते थे
प्यास कम और कपड़े ज़्यादा भीगते थे
मैं उससे मिली
लगा के जीवन को तो बस
यही सबकुछ चाहिए था ,
पर ज़िंदगी तो कहीं
और ही ले गई।
रास्ते में पीपल पर लगा
बहुत बड़ा झूला भी दिखा,
मैं निहारती हुई आगे बढ़ गई।
कुछ ही दूरी पर हमारा घर था।
लेकिन यहां तक पहुंचते पहुंचते
मेरे जिस्म ने मुझे
अपनी आगोश में भर लिया था।
और फिर मैं भी तरक्की की भेंट चढ़ गई।
एक झटके से यूं लगा
कि मेरा सबकुछ खो गया,
न झूला दिखा, न कच्चे रास्ते
बस हर तरफ़
ऊंचे ऊंचे पक्के मकान थे….
मेरा सखा , मेरा बचपन का गांव
अब बढ़ा हो चुका था।
अब वो मुझे भूल चुका था
पर मैं कैसे भूलूं
मेरी समृति ही मेरी सांसें हैं
जब तक हूं
नहीं भूल सकती
अपना गांव।

~ कुसुम शर्मा अंतरा