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नारी की व्यथा कथा जो अक्सर कहती हैं ………..

मैं ठीक हूँ , पर क्या वो सच कहती हैं

मैं ठीक नहीं

ज़िंदगी तेरे गर्म तवे पर

यूँ ही सिकती पकती रही ,

ठंडे ठंडे छींटे डालकर

यूँ ही धीमे धीमे सुलगती रही ।

ज़िम्मेदारियों के बोझ से

यूँ ही दबती चली गयी ,

खुद की इच्छाओं को दफ़ना के

यूँ ही अपना फ़र्ज़ निभाती गयी ।

घड़ी की सुइयों की तरह

यूँ ही दौड़ती , भागती रही ,

न जाने कितने भागों में

यूँ ही अपने आपको बाँटती रही

किसी शीतल नादिया की तरह

यूँ ही मैं बहती रही ,

सबका आक्रोश , सबके ताने

यूँ ही मैं सहती रही।

खुद विश का प्याला पी कर

यूँ ही सबको अमृत पिलाती रही ,

रिश्तों में प्रेम की मिठास भर कर

यूँ ही मैं , कड़वाहटों को मिटाती रही ।

दिल के ज़ख्मों को समेटे

यूँ ही मुस्कुराती रही ,

मन की उलझनों से

यूँ ही मैं टकराती रही ।

मैं खुश हूँ , मैं ठीक हूँ

यूँ ही सबसे कहती रही ,

पर क्या मैं ठीक हूँ ?

ये प्रश्न खुद से ही करती रही ।

घुट घुट के जी कर

सौ सौ बार मैं मरती रही ,

सच्चाई को झुठला कर

खुद को ही मैं छलती रही ।

ऐ ! ज़िंदगी तुझसे गिला शिकवा नहीं

पर सच बोलने की हिम्मत भी नहीं ,

कैसे दिल का ये राज़ खोल दूँ

कैसे मैं सरे आम बोल दूँ

मैं ठीक नहीं

हाँ । मैं ठीक नहीं ।

~ सोनिया भयाना

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