क्यूं छेड़ा – प्रकृति का आक्रोश

फट पड़े वे आक्रोश से, हाहाकार मचा दिया।
उजड़ गए गांव के गांव, सब कुछ तहस-नहस।
पल भर में जल प्रलय, भयावह विहंगम दृश्य।
भागता, ढूंढ़ता, दौड़ता, तड़पता, गुहार लगाता
बदहवास सा जन-जीवन…
हा! दूर तलक कोई अपना नहीं दिख रहा।
अपनी आँखों से अपनी तबाही के नश्तर…
कभी इन्हीं पहाड़ों से देखते थे कुदरत के हसीन मंजर।
मैंने छत पर जाकर उड़ते बादलों से पूछ लिया—
“तुमने ऐसा क्यों किया, ऐसा विद्रूप रूप क्यों लिया?”
बादल उमड़-घुमड़ कर व्यंग्य भरे अट्टहास में बोले—
“हमारी तरफ उंगली मत कर,
तीन उंगलियां तेरी तरफ हैं।
जो दोगे वही लोगे।
कार्बन पिलाते हो तो आक्रोश प्रलय बनकर ही फूटेगा…
क्यों छेड़ा, बोलो क्यों छेड़ा?”
हे मानव!
प्रकृति का दोहन क्यों?
क्यों काटते हो पहाड़, रोकते हो नदी के द्वार?
क्यों होती है वृक्षों की निर्मम हत्या सड़क निर्माण में?
यह चेतावनी है, समझो!
अब भी वक्त है— पर्यावरण सुधारो।

✍️ स्वरचित : सपना जैन शाह, उदयपुर (राजस्थान)