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घूमती रहती हैं मन के आंगन में ….. कितनी ही मृगमरिचिकाएं ……
घूमती रहती हैं मन के आंगन में ,,,
कितनी ही मृगमरिचिकाएं,
भागते है हम उनके पीछे,,,
जैसे चंचल मन की प्रेमिकाएँ।
पाने को तो पा भी लेते है उसे,,
संतोष की कुछ बुँदे भी दे जाती है हमे,,,
हम जज्ब भी ना कर पाए, आ जाती है
नये रूप मे एक और मरीचिका ,,
भस्म कर देती है उन बूंदो को ,,
हम अतृप्त से रह जाते है,
चल पड़ते है फिर से उसी तलाश में
स्वर्णिम स्वप्न जैसी है वो कोई,
चमचमाती सी आँखों में,,
क्षितिज जैसी लगती है,,
जैसे छू लेंगे उसे हम जरूर,,
मगर हो जाती है आँखो से,,
बहुत दूर, बहुत दूर बहुत दूर।
~ नीतू गर्ग
ग्रेटर नॉएडा