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स्त्री शब्द को सदैव से ही भिन्न -भिन्न रुपों में परिभाषित किया जाता है। स्त्री एक मां है ,बहन है ,बेटी है, पत्नी है !

स्त्री शब्द को सदैव से ही भिन्न -भिन्न रुपों में परिभाषित किया जाता है। स्त्री एक मां है ,बहन है ,बेटी है, पत्नी है ।परंतु क्या कभी हमने सोचा है कि स्त्री स्वयं में क्या है ?उसकी भावनाएं, उसके विचार और उसका व्यवहार तथा उसका स्वयं का अस्तित्व क्या है? स्वयं के लिए ना सोच कर सदैव दूसरों के लिए सोचना क्या यही उसका जीवन है?इन्हीं सब सवालों के जवाब ढूंढने का प्रयास मैंने अपनी इस रचना में किया है और यह भी संदेश देने का प्रयास किया है कि महिलाओं को स्वयं का भी परिचय दूसरों से कराना चाहिए ना कि सदा दूसरों के परिचय से ही स्वयं की पहचान बनानी चाहिए ।
सर्वप्रथम देखिए कि सबकी महिलाओं से क्या आशाएं होती है।

बचपन से यौवन तक करती परीक्षा पार
लड़कियों को ही देखो देते रहे संस्कार,
घर में भाई बहन बने बना सुखी परिवार ,
इस घर रहना फिर उस घर जोड़ना घरबार ,
आज भी अपनी इच्छाओं पर सहती है वो प्रहार ,
बातें जो संभव ना लगे करे ना उस पे वार,
मां बापू के घर पली वही सम्भाला होश
दूजे घर जाकर सहे क्या है उसका दोष?
अब देखिए महिलाएं किस प्रकार से अपने आपको दूसरों के अनुसार ढाल लेती हैं और दूसरों के लिए त्याग की मूर्ति बनकर एक अच्छी स्त्री होने का प्रमाण प्राप्त करती हैं ।

हर पल सबकी बातों का करती रही सम्मान
जब मानी खुद के मन की सदा हुआ अपमान,
रिश्तों की कड़ियों से भी जुड़ी रही ये डोर
सबकी सुनकर सबकी सहकर पड़ी रही एक ओर,
भावों से अपनी सदा करती रही इंकार
सपनों को पूरा करने को पल पल ये लाचार,
घर के लोगों की खातिर
करती रही ये त्याग ,
सबकी इच्छाओं की उसमें
जलती रही बस आग,
पल-पल ,तिल -तिल वो भी जली
सपनों को रख दिया आज,
मां बहन और बेटी का
पहन लिया अब ताज,
दूसरों से ही भला
क्यों बनती पहचान,
अपनों के है बीच कभी
पा ना सकी वो मान,
स्वयं का अस्तित्व बतलाने को
बेबस वो लाचार ,
हर पल अपने त्याग से
करती रही वो प्यार,
दूसरों की जीत में
ढूंढे अपनी जीत ,
हार को अपनी भूल कर
करती उससे प्रीत ,
सब रिश्तो में रहकर वो खो बैठी पहचान
खुद मे खुद को ढूंढने की ललक हुई विरान,
अपनी ही नजरों में वो
कर ना सकी सम्मान ,
क्यूं खुद से वो हार गई
क्यों रिश्ते हुए बेईमान,
जीवन का यह नन्ना सफर होता नहीं आसान
स्त्री जन्म ना सबको मिले समझो इसे वरदान।
अपनी अगली पंक्तियों में मैं सभी स्त्रियों को यही संदेश देना चाहती हूँ की :

स्वयं की पहले चिंता करो
फिर उस पर अभिमान ,
रिश्ते बनाने से पहले
समझो स्वाभिमान ,
कर्म दंड और प्रेम का
करो सदा सम्मान ,
गुम ना हो अस्तित्व तुम्हारा
सदा करो वो काम,
बात तुमसे जो कहीं
बस रखना तुम याद ,
बढ़कर बोलो खुद के लिए
बिना किए अपवाद,
खुद की भी गिनती करो
शून्य हटा दो आज,
कर्मठ हो तेजस्विनी
यह दिखला दो आज ,
किसी से तुम भी कम नहीं
यह बतला दो आज,
सर पड़ते तो कर देती
सभी असंभव काज।
अपनी आखिरी पंक्तियों में बस यही कहना चाहूंगी –

“स्त्री धर्म निभाना है छोड़ो अब ये राग
अपने स्वाभिमान के ऊपर ना करना अब त्याग!”

~ डॉ.ज्योति उपाध्याय
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

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